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"प्र वाता इव दोधत उन्मा पीता अयंसत। कुवित्सोमस्यापामिति ।।"


(ऋग्वेद मन्त्र 10/119/2)


 

पातञ्जल योगदर्शनम - भूमिका-योग (ब्रह्म) विद्या भाग - १

योग विद्या पर प्रकाश डालने से पहले इस विद्या के विषय में जानना आवश्यक है। क्योंकि जैसे तुलसी ने रामायण में कहा है- "बिन जाने न होय प्रतीति बिन प्रतीति होय न प्रीति।" अर्थात् बिना किसी के बारे में जाने उससे प्रेम दृढ़ नहीं होता।


पूर्ण योग विद्या पूर्ण परमेश्वर से प्रकाशित वेद से निकली। वेद ज्ञान को कहते हैं। वेद पुस्तक नहीं है, न ही किसी ने लिखी है। यह ईश्वरीय ज्ञान सृष्टि के आदि में चार ऋषियों को परमेश्वर की कृपा से हृदय में प्रकट हुआ था। 

तत्पश्चात् यह ज्ञान कन्ठाय (मुंह जबानी) गुरु परम्परागत याद किया गया, बाद में द्वापर युग में व्यास मुनि ने वेदों के इस अनन्त ज्ञान को भोजपत्र पर लिपिबद्ध किया। यजुर्वेद के मन्त्र में कहा है-

 

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे 

छन्दासि जज्ञिरे तस्माद्यजुः तस्मादजायत।

 

(यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 7)

 

उस परमात्मा से ऋग्वेद, यजु, साम तथा अथर्ववेद निकले। परमेश्वर पूर्ण है, सत्य है, उससे ही यह पूर्ण योग विद्या का ज्ञान निकला। 

अतः जब हम किसी भी सत्य विद्या की बात करेंगे तो यह सुनिश्चित है कि वह विद्या वेदों से निकली। जैसे परमेश्वर अनादि है, वैसे ही योग विद्या भी अनादि है। 

वेद के शब्द यौगिक हैं, अलौकिक हैं। इसीलिए वेद के मन्त्रों को शब्द ब्रह्म भी कहा जाता है। यह शब्द रूढ़ या सांसारिक नहीं है। वेद योग से व योग वेद से जुड़ा है। 

विद् धातु से वेद शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ ज्ञान है।

 

जड़ चेतन का ज्ञान ही ज्ञान है। जड़ प्रकृति से बना शरीर है एवं सर्व जगत है। 

चेतन जीव एवं ब्रह्म है। योग विद्या द्वारा इन्हीं का ज्ञान होता है। अतः ज्ञान वेद है, वेद योग है, योग ही ज्ञान है। 

यह अलग- अलग नहीं किये जा सकते। जैसे सूर्य के प्रकाश द्वारा हम आंखों से पदार्थ वस्तु इत्यादि देखते हैं, वैसे ही योग विद्या पाकर योगाभ्यास द्वारा योग दृष्टि से दिव्य चक्षु पाकर हम परमेश्वर का दर्शन करते हैं, योगी बनते हैं। 

अर्थात् उस परमेश्वर से जुड़ जाते हैं। हर वेद में योग विद्या है। यजुर्वेद में आया है :-

 

उपयामगृहीतोऽस्यन्तर्य्यच्छ मघवन् 

पाहि सोमम्। उरुष्य रायऽएषो यज्ञस्व ।।

 

(यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 4)

 

अर्थ (उपयामगृहीतः) तू यम आदि को ग्रहण करने वाला (असि) है (अन्तः) अन्दर जो प्राणादि है उनका (यच्छ) निग्रह कर अर्थात् जो योग के आठ अंग हैं उसमे:-

 

यमनियमासन प्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान-समाधयोऽष्टावङ्गानि ।।

 

(योग शास्त्र साधनपादः पाद 29)

 

(योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि)। (मघवन्) हे जीव तू (सोमम्) योग सिद्धि की (पाहि) रक्षा कर (उरुष्य) योगाभ्यास द्वारा (रायः) योग रूपी धन और (इषः) इच्छाओं को (आ यज्ञस्व) सिद्ध कर। 

इस मन्त्र में परमेश्वर उपदेश करता है कि योग के जिज्ञासु यम आदि योग विद्या से अविद्या को दूर करें और (रायः) योग की सिद्धियों को प्राप्त करें। 

अतः योग विद्या वेद अनुकूल ही प्राप्त करनी चाहिए। 

हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता (याज्ञ० स्मृ० - याज्ञवल्क्य स्मृति) हिरण्यगर्भः (जिसकी सामर्थ्य में सब कुछ है) याज्ञवल्क ऋषि ने कहा है कि परमेश्वर (योगस्य) योग विद्या का (वक्ता) दाता है, वक्ता है। 

महाभारत में भी व्यास मुनि ने ऐसा ही कहा है। यजुर्वेद में ही एक शब्द (आपा अन्तर्यामे) आया है। (यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 5)

 

अन्तस्ते द्यावानुथिवी दधाम्यन्तर्दधाम्युर्वन्तरिक्षम् । 

सजूर्देवेभिरवरैः परैश्चान्तर्याम मघवन्मादयस्व ॥  (यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 5)

 

अर्थात् अन्दर के यम आदि योग साधन से (मादयस्व) दूसरों को भी हर्षित करो। यहां लेख बड़ा न हो जाए तो ज्यादा प्रमाण नहीं दे रहे, लेकिन प्रत्येक वेद में योग विद्या का ज्ञान दिया गया है। 

गीता, उपनिषद, रामायण, शास्त्रों एवं अन्य ग्रन्थों में भी योग विद्या वर्णित है। तो हमने विचारना भी है कि योग विद्या को प्रभु की आज्ञा मानकर, ऋषियों की आज्ञा मानकर स्वीकार करें या नहीं। 

 

आजकल यह धारणा भी व्यर्थ है कि योग विद्या गृहस्थियों के लिए नहीं है, ऐसा होने पर तो हमारे पूर्वजों के उदाहरण व्यर्थ हो जाएंगे जिन्होंने गृहस्थ में रहकर यह अपनायी। 

जैसे कि प्रत्येक ऋषि-मुनि जो गृहस्थ में थे और यहां तक कि व्यास, श्रीकृष्ण जैसे योगेश्वर जिन्होंने पवित्र धर्म ग्रन्थ श्री गीता में योग विद्या को प्रकाशित किया। और गीता में कहा :-

 

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । 

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।(गीता 5/2)

 

अर्थात् नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को प्राणायाम द्वारा सम करके मोक्ष परायण हो। गीता में ही भगवान श्रीकृष्ण ने 6 अध्याय के 46 वें श्लोक में कहा है :-

 

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । 

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।। (गीता 6/46)

 

अर्थात् योगी तपस्वियों से, शास्त्र के ज्ञान वालों से, सकाम कर्म करने वालों से श्रेष्ठ है। इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी हो जा। 

यह भी विचारणीय है कि किसी भी सद्यन्थ में, चाहे वह वेद हो, शास्त्र हो, धर्म ग्रन्थ हो, यह आदेश कदापि नहीं है कि योग विद्या गृहस्थियों के लिए नहीं है। 

यह विद्या गृहस्थी, ब्रह्मचारी (विद्यार्थी, पुत्र एवं पुत्री), वानप्रस्थी एवं सन्यासी सबके लिए समान रूप से धारण करने योग्य है, जैसाकि सतयुग, द्वापर एवं त्रेता में सब वर्णों ने इसे धारण किया। 

 

भगवान श्रीराम जैसे मर्यादा में रहने वाले पुरुषोत्तम भी माता पिता के संग गृहस्थ में हुए और उन्होंने भी वेद प्रणीत योग विद्या धारण की एवं अन्यों से कराई। 

इस सत्य को वाल्मीकि मुनि ने श्रीमद् वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड प्रथमः सर्गः के 12वें, 14वें एवं 15वें श्लोक में क्रमशः श्रीराम जी के लिए कहा कि वे समाधिमान, वेदवेदाङ्ग तत्त्वज्ञः तथा सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः अर्थात् वे समाधि (जो योग द्वारा लगती है) लगाने वाले वेद एवं वेदाङ्गों के मर्मज्ञ तथा सब शास्त्रों के तत्त्वों को भली - भांति जानने वाले थे। 

अतः इस सत्य से कौन मुंह मोड़ सकता है कि श्रीराम जी थे वह भी योग समाधि लगाने वाले थे। 

अतः वेद एवं वेद में वर्णित योग एवं अन्य विद्याओं की निन्दा करने वालों को तुलसी ने रौरव नरक गामी कहा तथा ऐसा ही सुर (देव अर्थात् विद्वानों, सन्तों) की निन्दा करने वालों को नरक गामी (इस जन्म में भी दुरखी तथा अगले जन्म में भी दुरवी) कहा।

 

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी, रौरव नरक परहिं ते प्राणी।

 

अर्थात् सुर (विद्वान) श्रुति (वेद) निन्दक रौरव नरक में जाता है। 

 

श्रीराम के समय में सनातन वेद/योग विद्या इतनी प्रबल थी कि श्रीराम के राजगद्दी पर आसीन होते समय तुलसी ने उत्तरकांड, 11वीं चौ० 'रामचरितमानस' में कहा-

 

वेदमन्त्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।

 

अर्थात् उस शुभ अवसर पर ब्राह्मणों ने वेदमन्त्र का उच्चारण किया। 

 

दो० - बरनाश्रम निज-निज धर्म निरत वेद पथ लोग। चालहिं पावहिं सुवहिं नहिं भय सोक न रोग ।।20।। 

 

अर्थात् सब नर नारी अपने अपने वर्ण एवं आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। 

उन्हें न किसी बात का भय, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है। और यह प्रमाण तुलसी का सत्य को दर्शाता है कि राम राज्य में सनातन वेद एवं योग विद्या घर-घर थी फलार्थ सब नर नारी क्लेषों एवं रोगों से रहित आनंद में रहते थे। 

इस चौपाई की व्याख्या ही बहुत गहन एवं गंभीर है, एवं अर्थ धर्म, काम मोक्ष रूपी फलों को (सुखों को) देने वाली है। 

लेख बड़ा न हो अतः इसकी विस्तृत व्याख्या यहा संभव नहीं। यह भी हमें गंभीरता से विचारना चाहिए कि सतयुग, द्वापर, त्रेता और इसके पश्चात् भी जितने राजा पृथ्वी पर हुए सब ही वेद एवं योग विद्या के ज्ञाता थे एवं इस विद्या को पाने के लिए ऋषियों, मुनियों का आदर, मान-सम्मान करते थे। 

संत, महात्मा उनके राज्य में पूजित थे। जैसे मनु भगवान पृथ्वी के प्रथम राजा हुए उसके पश्चात् इक्ष्वाकु त्रिशंकु, कुरू, भरत, सगर, ययाति, अष्टक, पाँडु, युधिष्ठिर जनमेजय, परिक्षित, श्री कृष्ण भगवान, जनक, दशरथ, भगवान श्री राम, हरिश्चन्द्र जैसे असंख्य राजा पृथ्वी पर हुए जो इस वेद एवं योग विद्या के परम ज्ञाता थे। 

रामचरितमानस में चौपाई है :-

 

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज्य नहीं काहुहि ब्यापा।। 

सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्मनिरत श्रुति नीति।।1।।

 

संसार में ऊपर लिखे तीनों ही दुःख प्राणी को जीवन में सताते हैं जो योग विद्या से समाप्त होते हैं। 

इन दुखों का वर्णन कपिल मुनि ने सांख्य शास्त्र के प्रथम अध्याय, प्रथम सूत्र में इस प्रकार कियाः -

 

"अथ त्रिविध दुःखः अत्यन्त निवृतिः अत्यन्त पुरुषार्थः" अर्थात तीनों प्रकार के दुःखों का समूल नाश करनाही पुरुष (जीव) का सर्वोत्कृष्ट प्रयोजन (ध्येय) है।

 

संक्षेप में यह दुख जो भिन्न-भिन्न प्रकार से प्राणी को कर्मानुसार भोगने पड़ते हैं वह निम्न हैं।

 

1. दैहिक-अर्थात् जो दुःख इस मानव शरीर को कष्ट देते हैं। जैसे बुखार, शारीरिक रोग इत्यादि एवं मानसिक कष्ट।

 

2. दैविक-जड़ देवताओं द्वारा कष्ट जैसे अधिक वर्षा या समय पर वर्षा का बिल्कुल न होना (जल देवता द्वारा कष्ट) हिमपात, विद्युत पात, भूकम्प तथा वायु उत्पातों के द्वारा कष्ट।

 

3. भौतिक-जो जीव को अन्य प्राणियों द्वारा होता है। जैसे सांप बिच्छु इत्यादि का काटना। सिंह आदि हिंसक पशु द्वारा हिंसा देना।

 

कपिल मुनि ने सांख्य शास्त्र के छठे अध्याय के 29 वें सूत्र में योग विद्या प्रकाशित करते हुए योग द्वारा तीनों दुखों का नाश इस प्रकार बताया है।

 

ध्यानधारणाभ्यासवैराग्यादिभिस्तन्निरोधः  (अध्याय » 6; सूत्र » 29)

 

अर्थात् ध्यान धारणा अभ्यास वैराग्य आदि के द्वारा (तत-निरोधः) क्लेशों का नाश हो जाता है। 

यही बात ऊपर योगशास्त्र में भी कही गई है। तुलसी ने भी उक्त चौपाई में पूर्ण प्रमाण दे दियाकि यह सब दुःख "निरत श्रुति नीति" वेदों में बताई हुई नीति (योग विद्या तथा प्राणी के कर्तव्य) में तत्पर रहकर राम राज्य में किसी को नहीं सताते थे। जैसे गाय का प्रयोजन दूध देना, सूर्य का प्रकाश देना है, इसी प्रकार हम विचार करें मनुष्य का ध्येय क्या है?

 

वेद एवं शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य का ध्येय उपर्लिखित वेदशास्त्रों गीता, रामायण एवं प्रत्येक सद्द्यन्थों में वर्णित योग विद्या द्वारा क्लेशों का नाश (समूल नाश) करके सुख प्राप्त करना है। संसार भर के प्रत्येक सदान्थों में इसी कटु सत्य का वर्णन है कि प्राणी स्वयं सुखी रहे तथा दूसरों को भी सुख दे। जीयो और जीने दो।

 

…जारी रहेगा।