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“उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुर्ये अश्वदाः सह ते सूर्येण। हिरण्यदा अमृतत्वं भजन्ते वासोदाः सोम प्रतिरन्त आयुः।।"


(ऋग्वेद मंत्र 10/107/2)


 

पातञ्जल योगदर्शनम - भूमिका-योग (ब्रह्म) विद्या भाग - ४

 

यजुर्वेद मंत्र 31/8: -

 

“तस्मादश्वाऽअजायन्त ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्मानाता ऽअजावयः”॥

 

में कहा-परमेश्वर के ज्योतिस्वरूप को जानकर ही मानव मृत्यु को पार कर सकता है। इसके अतिरिक्त मोक्ष प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है। 

अर्थात् परमेश्वर को जानना ही पड़ता है। योग समाधि में ही ऋषियों ने परमेश्वर को बीते युगों में जाना था आज भी यही नियम लागू है। 

 

श्वेताश्वरोपनिषद् श्लोक 2/15: - 

 

यदात्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत् । 

अजं ध्रुवं सर्वतत्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः ॥ १५ ॥

 

में कहा कि जब योगी आत्म तत्व के प्रकाश में बह्म तत्व को देख लेता है, तब सब तत्वों से अधिक शुद्ध अजन्मा एवं सर्वव्यापक परमेश्वर को जानकर सब कर्म बन्धनों से छूट जाता है। 

 

अतः योग विद्या को मृतप्रायः होने से बचाना परमावश्यक है अन्यथा बह्म को जानना अर्थात् ब्रह्म अनुभूति संसार से लुप्त हो सकती है। 

 

योगशास्त्र के सूत्र 1/48: - 

 

"ऋतम्भरातत्र प्रज्ञा" ।। 48 ।।

 

में कहा कि योगी की बुद्धि सत्य को ग्रहण करने वाली होती है। 

 

जैसे हंस दूध मिले पानी को पीता हुआ दूध ही ग्रहण करता है, पानी को दूध से पृथक करके छोड़ देता है। 

इसी प्रकार योगी की बुद्धि सत्य सत्य ही ग्रहण करती है, असत्य का त्याग कर देती है। 

उस बुद्धि में भ्रम नहीं होता। केवल ग्रन्थों को पढ़, सुन अथवा रट कर बोलने से न तो दुःखों का छुटकारा होता है और न ही हृदय में यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है। कपिल मुनि भी कहते हैं। 

योगशास्त्र के सूत्र 1/23: - 

 

“ईश्वरप्रणिधानाद्वा” ।। 23 ।।

 

में कहा कि चित्त की वृत्तियों द्वारा जो ज्ञान होता है, मोक्ष का उपाय नहीं है। योग समाधि में ही परमेश्वर को जानकर जीते जी मोक्ष प्राप्ति होती है। सद्यन्थों का स्वाध्याय विद्या प्राप्ति का साधन है जो परमावश्यक है। यथार्थ दर्शन योगसाधन द्वारा होता है। 

 

वाल्मीकि रामायण, महाभारत, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ, शास्त्र एवं अनेक अन्य सद्यन्थों से यह सिद्ध है कि सतयुग से लगाकर महाभारत काल तक साधना, संयम, शाँति एवं उपासना आदि धार्मिक अनुष्ठान तथा ब्रह्म प्राप्ति तक का प्रमुख साधन चारों वेद एवं उसमें कही योग विद्या ही रही है।

 

योग विद्या की आवश्यकता:

 

सांख्यशास्त्र में मुनि कपिल ने कहा है कि मनुष्य जीवन में मुख्यतः तीन प्रकार के दुःख हैं :-

 

1. आदि भौतिक :- मनुष्य को अन्य प्राणियों से जैसे सांप के काटने तथा किसी के भी द्वारा शारीरिक कष्ट प्राप्त होने से प्राप्त।


2. आध्यात्मिक दुःख :- शरीर में रोग इत्यादि तथा कामादि विकारों से प्राप्त। मानसिक कष्ट।

 

3. आदि दैविक दुःख :- जलवायु, सूर्य इत्यादि द्वारा प्राप्त। जैसे पृथ्वी का फटना, जल अथवा वायु का तूफान इत्यादि।

 

इन तीनों दुःखों में अनेकों दुःखों का समावेश है। यह दुःख कर्मानुसार समय-समय पर भोगने के लिए जीवन में उपस्थित होते हैं।

योग विद्या की आवश्यकता इन सब दुःखों का नाश करके मोक्ष के सुख की प्राप्ति के लिए है और इस आवश्यकता को वेद शास्त्रों सहित सब सद्ग्रन्थों ने प्रामाणिक कहा है।

 

वर्तमान काल में योग विद्या भारतवर्ष के विभिन्न मत-मतान्तरों में इस विद्या का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष स्वरूप अथवा कुछ अंगों का वर्णन आज भी देखने को मिलता है। 

गोरक्ष संहिता में दो सौ श्लोकों में योगी गुरु मत्स्येन्द्र नाथ जी महाराज ने अपने प्रिय शिष्य गुरु गोरक्षनाथ जी को इस विद्या का उपदेश किया है। 


हठयोग प्रदीपिका, घेरण्ड-संहिता, शिव संहिता इत्यादि अनेक संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में योग विद्या का वर्णन है। 

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, तुलसीकृत रामायण, कबीर वाणी, मीरा की वाणी, सहजोबाई की वाणी इत्यादि ग्रन्थों में भी इस विद्या का उल्लेख है। रामायण में जरा देखिये। 

 

चौ०:-

"सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई॥

जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा॥

 

अर्थात् परमेश्वर की कृपा से वेदों में कहे अपार जप तप वत्त एवं योग के यम नियम आदि शुभ धर्म कर्म हमारे आचरण में हों तभी हमें जड़ चेतन का यथार्थ दर्शन होगा।

 

दो० -

“जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ। 

बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ “।।117 (क) ।।

 

तुलसी कहते हैं जीव योगाभ्यास द्वारा योग अग्नि प्रकट करके समस्त शुभ एवं अशुभ कर्मों को भस्म कर दें तब मोक्ष हो जाता है।

वेद प्रणीत योग विद्या का विस्तृत उपदेश पाताञ्जलि ऋषि द्वारा रचित योगशास्त्र में इस विद्या के पूर्ण अंगों सहित दर्शनीय है।

 

 

योग विद्या में आई गिरावट का कारण महाभारत काल में धृतराष्ट्र ने मोहवश अपने पुत्र दुर्योधन को राज्य देने के लिए पाँचों पांडवों को राज्य से विमुक्त कर दिया था। 

शकुनि, दुःशासन एवं दुर्योधन इन सबकी विषय-विकारी तथा पांडवों के प्रति राग द्वेष वाली प्रवृत्ति के कारण महाभारत जैसा भंयकर युद्ध हुआ। 

 

युद्ध के पश्चात् कौरवों की तरफ से केवल कृतवर्मा अश्वत्थामा एवं कृपाचार्य यह ती शेष रहे तथा पांडवों की तरफ पाँचों पांडव एवं श्री कृष्ण शेष रहे। 


धर्मात्मा राजाओं एवं प्रजा का भयंकर विनाश हुआ। विनाश को प्राप्त राजा एवं प्रजा सब धार्मिक एवं वेद तथा योग विद्या को जीवन में धारण करने वाली थी। 

 

वेद पाठ, यज्ञ तथा योगाभ्यास घर में जीवित था। माता-पिता एवं वृद्ध वेद मतानुसार सब के पूजनीय थे। 

 

ऋषि, मुनि, योगी, तपस्वी एवं विद्वान परम् पूजनीय एवं परम् आदरणीय थे। 

राजा एवं प्रजा इन्हीं की पूजा करके विद्या लाभ लेती थी। 

 

युद्ध के पश्चात गुफाओं, कंदराओं, वनों एवं एकांत में बसने वाले इन ऋषि-मुनियों को फिर किसी ने गृहाश्रम में आमंत्रित नहीं किया। 

क्योंकि बचे हुए राजा तथा कुछ प्रजा युद्ध के प्रकोप एवं भयंकर परिणामवश अधिकतर शोकग्रस्त थे। 

 

भारतीय संस्कृति का यही दुर्भाग्य रहा और इस प्रकार वेद एवं योग विद्या का प्रचार प्रसार जो केवल समाधि प्राप्त मुनियों द्वारा ही होता था। 

वह क्षतिग्रस्त होकर रुक गया। 

क्योंकि वेद स्वयं कहता है :-

 

“रहित मन्त्र अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुर्शम्भवात् । 

इति शुश्रुम धीराणाँये नस्तद्विचचक्षिरे”॥ (यजुर्वेद 40/10)

 

अर्थात् यह विद्या हम ध्यान में लीन समाधि प्राप्त योगियों से सुनते आये हैं। प्रत्येक वेद एवं शास्त्र में ऐसे अनेक प्रमाण हैं। 

सांख्यशास्त्र (3/19):-

 

एकभौतिकमित्यपरे ॥ १६ ॥

 

में कहा जीवन मुक्त पुरुष ही जनता को इसका उपदेश भलिभांति कर सकता है, और,

 

आगे (3/81):-

 

“उ० - इतरथान्धपरम्परा” ॥ ८१ ॥

 

 में कहा कि यदि योग समाधि प्राप्त बह्मलीन पुरुष बह्मलीन होते ही शरीर छोड़ दे तब अनुभवहीन ज्ञान द्वारा अंध परंपरा चल पड़ेगी। अतः यह ऋषियों के विचार ग्रहण करने योग्य हैं।

 

महाभारत काल के पश्चात् इन ऋषियों के अभाव के कारण हमारी प्राचीन संस्कृति तथा भारतवर्ष का वैभव मृतप्रायः सा हो गया है। देश में आडम्बरों की एक बाढ़ सी आ गई है।

 

अधिकतर जीव धर्म के मार्ग में पुरुषार्थहीन दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु योग विद्या में पुरुषार्थहीनता एवं आडम्बर का कोई स्थान नहीं है। 

वर्तमान काल में यह विद्या अपने कई अंग खोकर अंधी, लंगड़ी, लूली, काणी सी लगने लगी है। 

 

यह हमारा दुर्भाग्य है क्योंकि कहीं केवल आसन, कहीं केवल प्राणायाम, कहीं केवल ध्यान तथा कहीं केवल समाधि इत्यादि को ही योगा कहा जा रहा है। 

वास्तव में यह शब्द 'योग' है जो 'युञ्ज' धातु से निष्पन्न होता है और जिसका अर्थ समाधि है। 

 

कई जगह इस विद्या को अपंग बनाकर धन का साधन भी बनाया जा रहा है। 

 

इस प्रकार कहीं-कहीं इससे केवल स्वास्थ्य ठीक करने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है। 

वहां बह्म प्राप्ति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। 

 

जैसे मनुष्य प्रत्येक अंग, आँख, कान इत्यादि सहित ही पूर्ण मनुष्य कहा जाता है बिल्कुल इसी प्रकार योग विद्या के भी संपूर्ण आठ अंगों के ज्ञान एवं अभ्यास को ही हम पूर्ण योग विद्या जाने। 

 

इस पूर्ण विद्या को पूर्ण योगी से प्राप्त करके ही पूर्ण परमेश्वर को जानकर पूर्ण दुःखों का नाश करके मोक्ष सुख प्राप्त होता है। 

 

अतः वर्तमान काल में भी इस विद्या की अत्यंत परम आवश्यकता वैसी ही स्वीकार करने योग्य है जैसे पिछले बीते सतयुग, द्वापर एवं त्रेता युग में थी।

 

ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।